या देवी सर्वभूतेषु शक्ति-रूपेण संस्थिता

लखनऊ:  लखनऊ में दुर्गा मूर्तिकला की समृद्ध परंपरा बंगाल से कुछ भिन्न होते हुए भी अपनी अनूठी पहचान रखती है। यहाँ के कारीगर विभिन्न समुदायों से आते हैं और दुर्गा पूजा के समय इनकी मांग काफी बढ़ जाती है। लखनऊ में दुर्गा मूर्ति बनाने वाले कलाकार अपनी विशेष शैली और स्थानीय परंपराओं को मूर्तियों में ढालते हैं। ये कारीगर अपनी कला के लिए प्रसिद्ध हैं और अक्सर लखनऊ में कई पूजा समितियों द्वारा आमंत्रित किए जाते हैं।

लखनऊ के प्रमुख दुर्गा मूर्ति कलाकार

 राजाजीपुरम और आलमबाग के कारीगर

राजाजीपुरम और आलमबाग में मूर्ति बनाने वाले कई पारंपरिक कलाकार हैं, जो पीढ़ियों से इस कला को संभाले हुए हैं। इन इलाकों में छोटे-छोटे कार्यशालाओं में कारीगर दुर्गा मूर्तियों का निर्माण करते हैं। इन मूर्तियों में स्थानीय कला और पारंपरिक बंगाली शैली का सुंदर मिश्रण देखने को मिलता है।

चौक और अमीनाबाद

चौक और अमीनाबाद के कारीगरों ने अपनी मूर्तिकला की प्रतिभा से खास पहचान बनाई है। ये क्षेत्र पुराने लखनऊ के केंद्र हैं, जहाँ शिल्पकला की परंपरा बहुत पुरानी है। यहाँ के मूर्तिकार बंगाल की शैली को अपनाते हुए उसे लखनऊ की स्थानीय जरूरतों और सांस्कृतिक परिवेश के अनुसार ढालते हैं।

हुसैनगंज और नरही के कारीगर

हुसैनगंज और नरही में भी दुर्गा मूर्तियों का निर्माण होता है। इन क्षेत्रों में कई बंगाली परिवार बसे हुए हैं, जो बंगाली परंपराओं का पालन करते हुए दुर्गा पूजा का आयोजन करते हैं। यहाँ के कारीगर बंगाली मूर्तिकला शैली के विशेषज्ञ होते हैं, और उनकी मूर्तियों की मांग लखनऊ के अलावा अन्य शहरों में भी होती है।

लखनऊ में मूर्तिकला की शैली और बदलाव

लखनऊ के कारीगर कभी-कभी पारंपरिक सामग्री जैसे मिट्टी, बांस, और भूसे के अलावा प्लास्टर ऑफ पेरिस  का भी उपयोग करने लगे हैं। हाल के वर्षों में पर्यावरण के प्रति जागरूकता बढ़ने के कारण यहाँ भी इको-फ्रेंडली मूर्तियाँ बनने लगी हैं।

स्थानीय और बाहरी कारीगरों का सहयोग

लखनऊ में दुर्गा पूजा की बढ़ती लोकप्रियता के चलते हर साल बंगाल से भी कारीगर यहाँ आते हैं और स्थानीय कलाकारों के साथ मिलकर मूर्ति निर्माण करते हैं। इससे दोनों राज्यों की कला का सुंदर समागम देखने को मिलता है। कई बार बड़े पूजा समितियाँ विशेष रूप से कोलकाता के कुम्हारटोली से कारीगर बुलाती हैं, जो माँ दुर्गा की मूर्ति बनाने में विशेष दक्षता रखते हैं।

लखनऊ के दुर्गा मूर्ति कलाकारों की मेहनत और उनकी कला दुर्गा पूजा के दौरान शहर के विभिन्न हिस्सों में सजावट और सांस्कृतिक धरोहर को जीवंत बनाती है।

 दुर्गा पूजा में मूर्तिकला का धार्मिक महत्व

दुर्गा पूजा देवी दुर्गा के असुर महिषासुर पर विजय के उपलक्ष्य में मनाई जाती है। माँ दुर्गा की मूर्ति शक्ति, साहस, और मातृत्व का प्रतीक होती है। यह मूर्तिकला किसी साधारण कला का हिस्सा नहीं, बल्कि आध्यात्मिकता और विश्वास का प्रतीक है। मूर्ति के चेहरे की भाव-भंगिमाएं देवी के शौर्य, करुणा और सुरक्षा का प्रतिबिंब होती हैं, जिन्हें कारीगर बहुत महीनता से उकेरते हैं।

माँ दुर्गा की मूर्ति कैसे बनती है?

माँ दुर्गा की मूर्ति बनाने की प्रक्रिया बेहद जटिल और परिश्रम-साध्य होती है। आइए, इस पूरी प्रक्रिया को कुछ प्रमुख चरणों में बांट कर समझते हैं।

मिट्टी का चयन

मूर्ति बनाने के लिए मुख्य रूप से गंगा नदी की पवित्र मिट्टी का उपयोग किया जाता है। इसे ‘पवित्र मिट्टी‘ माना जाता है और इसे मूर्ति निर्माण के लिए आवश्यक अनुष्ठान के तहत एकत्र किया जाता है। इसके साथ-साथ, एक खास मिट्टी को वेश्यालयों के दरवाजे से भी लाया जाता है, जिसे ‘पुण्य मिट्टी’ कहा जाता है। इसे धार्मिक दृष्टिकोण से माँ दुर्गा की शक्ति और सम्मान का प्रतीक माना जाता है।

बांस और भूसे का उपयोग

मूर्ति का ढांचा बांस और भूसे से तैयार किया जाता है। कारीगर सबसे पहले बांस की संरचना बनाते हैं, जिसमें माँ दुर्गा और उनके साथ उपस्थित अन्य देवी-देवताओं की आकृतियों को उकेरा जाता है। इसके बाद भूसे की सहायता से इन ढांचों को आकार दिया जाता है ताकि मिट्टी को उस पर चढ़ाया जा सके।

मिट्टी की परतें

प्रारंभिक ढांचे पर मिट्टी की कई परतें चढ़ाई जाती हैं। सबसे पहले मोटी और खुरदुरी परत लगाई जाती है, जो मूर्ति को मजबूती देती है। फिर महीन और मुलायम मिट्टी की परत लगाई जाती है ताकि मूर्ति की शक्ल और चेहरे की बारीकियों को उकेरा जा सके। यह प्रक्रिया बहुत समय और धैर्य की मांग करती है, क्योंकि मिट्टी को सूखने और ठोस होने में समय लगता है।

रंगाई और सजावट

मूर्ति सूखने के बाद, उसे विशेष रंगों से सजाया जाता है। पारंपरिक रूप से, इन मूर्तियों को प्राकृतिक रंगों से रंगा जाता है, लेकिन आजकल कृत्रिम रंगों का भी इस्तेमाल किया जाता है। माँ दुर्गा की आँखें बनाना, जिसे ‘चक्षुदान’ कहते हैं, सबसे महत्वपूर्ण चरण होता है। इसे विशेष अनुष्ठान के साथ किया जाता है, ताकि देवी के रूप में जीवन का संचार हो सके।

पोशाक और आभूषण

मूर्ति को सुंदर वस्त्र और आभूषणों से सजाया जाता है। ये पोशाकें सामान्यतः कागज, कपड़े, या रेशमी सामग्री से बनाई जाती हैं और हर मूर्ति के हिसाब से अलग-अलग होती हैं। माँ दुर्गा के हाथों में शस्त्र, जैसे तलवार, त्रिशूल, और धनुष, भी लगाए जाते हैं, जो उनके शक्ति स्वरूप का प्रतीक होते हैं।

बंगाल के कारीगरों की विशेष मांग

बंगाल में मूर्तिकला की समृद्ध परंपरा है और यहाँ के कारीगर अपनी अद्वितीय कलात्मकता और हुनर के लिए प्रसिद्ध हैं। विशेषकर, कोलकाता के कुम्हारटोली (कुम्हार समुदाय का इलाका) के कारीगर विश्वभर में माँ दुर्गा की मूर्तियों को बनाने के लिए जाने जाते हैं। उनके द्वारा निर्मित मूर्तियाँ केवल भारत में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी भेजी जाती हैं, जहाँ भारतीय प्रवासी दुर्गा पूजा मनाते हैं।

कुम्हारटोली के कारीगरों की पहचान

कुम्हारटोली के कारीगर पीढ़ियों से मूर्ति निर्माण के कार्य में संलग्न हैं। उनकी मूर्तियों की पहचान उनके महीन कार्य और सुंदर चेहरे की भाव-भंगिमाओं से होती है। वे हर साल दुर्गा पूजा के समय विशेष मांग में होते हैं और उनके द्वारा बनाई गई मूर्तियों की प्री-बुकिंग पहले से ही शुरू हो जाती है।

बाहरी राज्यों और देशों से मांग

बंगाल के बाहर, जैसे दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, और यहां तक कि विदेशों में भी इन कारीगरों की विशेष मांग होती है। दुर्गा पूजा की वैश्विक महत्ता बढ़ने के साथ ही, कुम्हारटोली के कारीगरों को विदेशों से भी मूर्तियों के ऑर्डर मिलते हैं। अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में इन मूर्तियों की बड़ी मांग होती है।

बदलते समय के साथ मूर्तिकला में परिवर्तन

समय के साथ मूर्ति निर्माण की तकनीक और सामग्री में भी बदलाव देखने को मिल रहा है। पहले जहाँ केवल मिट्टी का इस्तेमाल किया जाता था, अब प्लास्टर ऑफ पेरिस (POP) और फाइबर की मूर्तियाँ भी बनने लगी हैं। इसके अलावा, पर्यावरण के प्रति जागरूकता के कारण अब पर्यावरण-हितैषी सामग्री से मूर्तियाँ बनाने पर भी जोर दिया जा रहा है। इको-फ्रेंडली मूर्तियाँ, जो विसर्जन के समय पानी को प्रदूषित नहीं करतीं, आजकल अधिक पसंद की जा रही हैं।

इको-फ्रेंडली मूर्तियों की बढ़ती लोकप्रियता

पर्यावरण संरक्षण के प्रति बढ़ती जागरूकता के चलते, कई कारीगर अब इको-फ्रेंडली मूर्तियाँ बना रहे हैं। इन मूर्तियों के निर्माण में जैविक रंगों, प्राकृतिक मिट्टी और अन्य पर्यावरण-हितैषी सामग्रियों का उपयोग किया जाता है। विसर्जन के बाद ये मूर्तियाँ पानी में जल्दी घुल जाती हैं और पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुँचातीं।

डिजिटल युग में मूर्ति निर्माण का विस्तार

डिजिटल तकनीक और 3D प्रिंटिंग जैसे नए साधनों ने मूर्ति निर्माण के क्षेत्र में भी प्रवेश किया है। हालांकि यह अभी प्रारंभिक स्तर पर है, लेकिन भविष्य में इनका उपयोग मूर्तिकला के विस्तार के लिए हो सकता है। इससे मूर्तियों के डिजाइन में और अधिक विविधता और सटीकता आएगी।

मूर्तिकला का दुर्गा पूजा में धार्मिक और सांस्कृतिक दोनों ही दृष्टिकोण से अत्यधिक महत्व है। माँ दुर्गा की मूर्तियों के निर्माण में जो कलात्मकता और परिश्रम लगता है, वह इस कला को विशिष्ट बनाता है। बंगाल के कारीगरों की इस समय की मांग, उनके अनूठे कौशल और कला के प्रति समर्पण का प्रमाण है। समय के साथ मूर्ति निर्माण की विधियों में बदलाव जरूर आ रहे हैं, लेकिन इसका मूलभूत महत्व और आध्यात्मिक मूल्य अभी भी बरकरार है।