अभिभावकों की अनजानी गलतियां बच्चों का दिमाग कर रहा कमजोर, स्मार्ट फोन बना काल
कानपुर। बेटा अभी महज पांच साल का है और बिना स्मार्ट फोन पर वीडियो देखे खाना ही नहीं खाता है। इसको कार्टून वाले वीडियो दिखाकर आसानी से खाना खिला देती हूं। मैं तो अपनी बेटी को स्मार्ट फोन दे देती हूं ,वह गेम खेलने और वीडियो देखने में उलझी रहती है। इसी दौरान मैं घर का सारा काम निपटा लेती हूं। मेरे बच्चे तो मोबाइल फोन पर इंटरनेट के सहारे ही अपना असाइनमेंट पूरा कर रहे हैं, अब इनको कुछ बताने की जरूरत नहीं है, ये उल्टा अब मुझे कई चीजें बताते हैं।
तकनीकी और गैजेट्स के बढ़ते इस्तेमाल के कारण आजकल हर घर में ये नजारा आम है। बच्चे स्मार्ट फोन पर अपना अधिक समय बिता रहे हैं और अभिभावकों को ये बात स्माभाविक लगती हैं। लेकिन, ये बातें स्वाभाविक नहीं, बल्कि अभिभावकों की ओर से अनजाने में की जा रहीं गलतियां हैं जो बच्चों की दिमागी क्षमताएं कमजोरी कर रही हैं।
इंटरनेट से बढ़ते इस्तेमाल और स्मार्ट फोने के जरिये आसान पहुंच के कारण बहुत कम उम्र से ही बच्चों को इसकी लत लग जाती है। आनलाइन क्लासेस, इंटरनेट मीडिया पर अस्तित्व, आसानी से असानमेंट पूरा करने समेत तमाम कारण बताकर बच्चे खुद का स्मार्ट फोन भी हासिल कर लेतें हैं, लेकिन ये स्मार्ट फोन उन्हें स्मार्ट न बनाकर उनके दिमाग से खेलेने लगता है।
उनमें आत्महत्या के विचार आने लगते हैं। साथ ही आक्रामकता और भावनात्मक अस्थिरिता बढ़ जाती है। इसके अलावा उन्हें आत्म-सम्मान में कमी और सामाजिक अलगाव महसूस होने लगता है। मनुष्यों के विकास और क्षमता को लेकर काम करने वाली संस्था ह्यूमन डेवलपमेंमट एंड कैपेबिलिटी एसोसिएशन की ओर से दुनिया भर के 18-24 साल के एक युवाओं लाख पर किए गए अध्ययन में बाते सामने आई है।
ये वे युवा थे जिन्हें 12 साल से पहले अपना खुदा का स्मार्ट फोन मिल गया था। इसे जर्नल आफ ह्यूमन डेवलपमेंमट एंड कैपेबिलिटीज में प्रकाशित किया गया है। अध्ययन में बताया गया है कि कम उम्र में अधिक समय वर्चुअल दुनिया में बिताने के कारण बच्चे बड़े होकर असल और वर्चुअल दुनिया में फर्क नहीं कर पाते हैं।
ओपीडी में रोजाना ऐसे 60 केस आ रहे
जीएसवीएम मेडिकल कालेज के मनोरोग विभाग के विभागाध्यक्ष डा. धनंजय चौधरी बताते हैं कि बाल रोग व मनोरोग की ओपीडी में हर दिन 60 से ज्यादा युवा व बच्चे ऐसे पहुंच रहे हैं जो मोबाइल व अधिक स्क्रीन टाइम के तली हैं। उनके मुताबिक, लंबे समय तक स्मार्ट फोन का प्रयोग करने से सोचने व समझने की शक्ति प्रभावित हो रही है। इस कारण युवा वर्ग में तनाव व बच्चों में चिड़चिड़ापन की समस्या बढ़ रही है।
उन्होंने बताया कि नौबस्ता के 12 वर्ष के बच्चे का इलाज एलएलआर के बाल रोग व मनोरोग विभाग में चल रहा है। अभिभावकों ने बताया कि बच्चा कई दिन से स्मार्टफोन पर वीडियो देखे बिना बिना भोजन तक नहीं करता था। मना करने या स्मार्ट फोन न देने पर छीनने पर खुद को नुकसान पहुंचाने लगता है। इसके अलावा कल्याणपुर के 14 वर्षीय बच्चे का इलाज किया जा रहा है जो चार से पांच घंटे तक मोबाइल पर वीडियो देखता था।
इस कारण उसकी आंखें कमजोर हो गईं थी व कम शारीरिक गतिविधि के कारण विकास भी नहीं हो पा रहा था। उसका उपचार नेत्र रोग विभाग की विशेषज्ञों की देखरेख में बाल रोग विभाग में किया जा रहा है। यह एक दो उदाहरण स्थिति को समझने के लिए काफी हैं।
मोबाइल फोन का इस्तेमाल न करने पर बेचैनी, घबराहट या खालीपन करते महसूस
छत्रपति शाहू जी महाराज विश्वविद्यालय के क्ललीनिक साइक्लोलाजी विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर सृजन श्रीवास्तव के अनुसार 12–13 वर्ष की आयु से स्मार्टफोन का उपयोग शुरू करने वाले बच्चों में कई तरह की भावनात्मक और व्यवहारिक समस्याएं मिल रही है। 10–12 वर्ष की उम्र के बच्चों में भावनात्मक अस्थिरता, चिड़चिड़ापन, आक्रामकता, ध्यान की कमी, सामाजिक अलगाव और नींद की समस्या तेजी से बढ़ी है।
ऐसे बच्चों के विस्तृत मनोवैज्ञानिक आकलन करते हैं, तो लगभग हर मामले में यह पाया जाता है कि बच्चे बहुत कम उम्र (8–12 वर्ष) में ही बिना किसी निगरानी के स्मार्टफोन का उपयोग शुरू कर देते हैं। वह बताते हैं कि ओपीडी में आने वाले बच्चे बताते हैं कि मोबाइल फोन का इस्तेमाल न करने पर वे बेचैनी, घबराहट या खालीपन महसूस करते हैं, जो डिजिटल निर्भरता के शुरुआती संकेत हैं।

कुछ किशोर साइबरबुलिंग, आनलाइन तुलना, लाइक्स के दबाव और लगातार स्क्रीन स्टिमुलेशन के कारण कम आत्म-सम्मान और यहां तक कि आत्म-क्षति जैसे विचार व्यक्त करते हैं। ये समस्याएं इसलिए भी बढ़ती हैं क्योंकि विकसित होता हुआ मस्तिष्क, विशेषकर प्रीफ्रंटल कार्टेक्स, अत्यधिक स्क्रीन-स्टिमुलेशन को सहन नहीं कर पाता। नींद का चक्र बिगड़ता है।
यूनिसेफ (2022) की एक रिपोर्ट भी बताती है कि कम उम्र में डिजिटल प्लेटफार्म से परिचय बच्चों में साइबरबुलिंग, सामाजिक तुलना और नशे जैसी डिजिटल आदतों के प्रति संवेदनशीलता बढ़ा देता है। जो आगे चलकर भावनात्मक अस्थिरता को बढ़ावा देता है। आक्सफोर्ड इंटरनेट इंस्टीट्यूट (2020) ने स्क्रीन-टाइम और किशोर कल्याण के बीच केवल कमजोर संबंध पाया है।
यह बताता है कि परिवार का वातावरण, पालन-पोषण की शैली और पहले से मौजूद भावनात्मक संवेदनशीलता वास्तविक निर्णायक भूमिकाएं निभाते हैं। मोबाइल या कंप्यूटर का प्रयोग शिक्षक व अभिभावकों की देखरेख में ही सीमित उद्देश्यों को पूरा करने के लिए किया जाना चाहिए।
सबसे पहले माता-पिता को बदलना होगा आचरण
समाजशास्त्री अनूप कुमार सिंह बताते हैं कि आजकल बच्चों में टेक संस्कार विकसित हो रहे हैं। इस कराण ये समस्याएं बढ़ रही हैं, जबकि पहले बच्चों में परिवार की ओर से दिए गए संस्कार विकसित होते थे। इसके लिए माता-पिता को पहल करनी होगी। उन्हें सबसे पहले स्वयं का आचरण ठीक करना होगा। दफ्तर या काम-धंधे से घर आने के बाद वे बहुत जरूरी होने पर ही मोबाइल का इस्तेमाल करें।
इससे बच्चों में भी यही संस्कार पनपेंगे और वे सामाजिक जुड़ाव, लोगों से बात करने का तरीका आदि सीखेंगे। इसके अलाव स्कूल की ओर से इंस्टेंट मैसेजिंग एप (वाट्सएप, टेलीग्राम) पर भेजे जाने वाले कंटेंट और असाइनमेंट को अपने फोन पर मंगाए और अपने सामने बच्चे को पूरा कराएं। इसके अलावा हफ्ते में एक दिन जीरो गैजेट डे ( बिना किसी गैजेट का इस्तेमाल करे दिन गुजारना) मनाएं।
बच्चों को इस खतरे से बचाने के लिए अभिभावक ये करें
बच्चों को किशोरावस्था तक स्मार्टफोन न दें
बाहर खेलने और सामाजिक गतिविधियों को प्रोत्साहित करें
दैनिक स्क्रीन समय सीमा निर्धारित करें
ऑनलाइन अनुभवों और भावनाओं के बारे में खुलकर बात करें
पेरेंटल कंट्रोल जैसे ऐप के उपयोग कर उनका वर्चुअल गतिविधियों पर नजर रखें
स्कूलों में ये गतिविधियां कराई जाएं
बच्चों को कम स कम स्मार्ट पर समय बिताने के लिए प्रोत्साहित करें
डिजिटल वेलनेस और सुरक्षित आनलाइन व्यहवहार के बारे में बच्चों को जागरूक करें
इंटरनेट मीडिया के क्षणिक भावनात्मक पहलुओं के बारे में बारे में बच्चों के बाताएं
बिना स्क्रीन की गतिविधियां कराईं जाए, जिससे बच्चे समाज से जुड़ने की कला सीखें
सामूहिक खेल गतिविधियों को बढ़ावा दिया जाए

